उतरी पूर्वी दिल्ली विधानसभा गोकलपुरी आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता और आम आदमी पार्टी के सचिव विवेक अग्रवाल ने
बाबा साहब डा.भीमराव अम्बेडकर जी क़े महापरिनिर्वाण दिवस पर
बताया कि
समय के हिसाब से सियासत बदलती है और उस सियासत के हिसाब से नायक भी बदले जाते हैं। ऐसा लगता है कि आज बाबा साहब भीमराव अंबेडकर सभी राजनीतिक पार्टियों की जरूरत बन गए हैं। उनकी महापरिनिर्वाण दिवस पर सभी पार्टियां सम्मान में झुकना सुखद मान रही हैं। ये इतिहास की वो रस्साकस्सी है जिसमें तमाम शख्सियतों को अपने खेमें में डालने की होड़ में सभी पार्टियां लगी हैं। चाहे वो महात्मा गांधी से लेकर पटेल हों या पटेल से लेकर अंबेडकर। देश की राजनीति में समय बदला और इसलिए सभी दलों ने अपने महापुरूषों की चुनिंदा सूची भी बदल ली है। यूं कहें कि बड़ी कर ली है। इस सूची में पिछले कुछ वर्षों से बाबा साहब भीमराव अंबेडकर सबसे प्रभावशाली नेता बनकर उभरे हैं। अब उन पर सिर्फ बसपा या मायावती या फिर कहें कि अठावले का हक नहीं है, बीजेपी का भी है और कांग्रेस का भी है और यहां तक की समाजवादी पार्टी ने भी अखिलेश सरकार के दौरान उनकी पुण्यतिथि पर छुट्टी का तोहफा देकर अंबेडकर की महत्ता साबित की है।
लेकिन वो क्या करें जिन्होंने अब तक अंबेडकर के नाम पर अपना साम्राज्य बनाया। उनके लिए ये संकट की घड़ी है। बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी है। ऊपर से अंबेडकर उन्हें प्रिय लगने लगे हैं। इसलिए मायावती इसे वोट की माया बताती हैं।
लेकिन सारी राजनीति को दरकिनार कर देश क़े प्रिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बाबा साहब अंबेडकर के सिद्धांतो पर चलकर पीएम बने हैं। पीएम ने संविधान निर्माता को श्रद्धांजलि देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। चाहे वो बीजेपी द्वारा डॉ. अंबेडकर की पुण्यतिथि हर साल की तरह महापरिनिर्वाण दिवस के रूप में मनाये जाने का निर्णय हो या पीएम मोदी द्वरा दिल्ली में अंबेडकर स्मारक का उद्घाटन किया जाना। 21 मार्च 2016 को नींव रखे जाने के महज दो साल में इसका निर्माण पूरा कराने की प्रतिबद्धता पीएम दिखा भी चुके हैं।
लेकिन वामपंथियों ने बाबा साहब को लाल रंग में रंगा तो अल्पसंख्यकों की राजनीति वालों ने अंबेडकर को हरे रंग का चोला पहना दिया। लेकिन क्या वजह है कि अंबेडकर को जगह मिलनी चाहिए थी, वो मिली नहीं। क्या ये सब इसलिए हुआ कि अंबेडकर मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति को हमेशा खारिज करते रहे। क्या अंबेडकर को मुस्लिम तुष्टिकरण के विरोध की सजा मिली थी। डा अंबेडकर को याद करते हुए और उनसे जुड़े सवालों, चुनौतियों और दावों का एमआरआई करते हुए हमने कुछ तथ्यों को खंगाल कर कुछ जानकारी भी इकट्ठा की है।
देश के मुसलमानों और भारत के बंटवारे पर डा अंबेडकर के जो विचार थे उन्हें लेकर आज भी विवाद होता रहा है। मुसलमानों को लेकर अंबेडकर का सबसे बड़ा ऐतराज ये था कि कांग्रेस हर हाल में मुसलमानों के तुष्टिकरण में लगी रहती है तुष्टीकरण तो करती हैं पर उनकी हर मांग को पूरा नहीं करती हैं! लेकिन साथ अछूत माने जाने वाले दलित वर्ग को वो अधिकार नहीं देती जो उन्हें मिलने चाहिए। पंडित नेहरू और अंबेडकर में रिश्ते अच्छे नहीं माने जाते थे। अंबेडकर ने सितंबर 1951 में कैबिनेट से इस्तीफ़ा देते हुए विस्तार से अपने इस्तीफ़े के कारण गिनाए और सरकार के अनुसूचित जातियों की उपेक्षा से नाराज़गी जाहिर करते हुए हिंदू कोड बिल के साथ सरकार का बर्ताव पर कहा था कि यह विधेयक 1947 में सदन में पेश किया गया था लेकिन बिना किसी चर्चा के जमींदोज हो गया। उनका मानना था कि यह इस देश की विधायिका का किया सबसे बड़ा सामाजिक सुधार होता। आंबेडकर ने कहा कि प्रधानमंत्री के आश्वासन के बावजूद ये बिल संसद में गिरा दिया गया। अपने भाषण के अंत में उन्होंने कहा, "अगर मुझे यह नहीं लगता कि प्रधानमंत्री के वादे और काम के बीच अंतर होना चाहिए, तो निश्चित ही ग़लती मेरी नहीं है। बाते औऱ भी हैं किसी मौजू पर बताऊंगा,
अपने जीवन के आखिरी वक्त में डा अंबेडकर ने कहा था कि वो पैदा तो हिन्दू हुए हैं लेकिन उनकी मौत एक हिन्दू के तौर पर नहीं होगी, जो बाद भी साबित भी हुइ❤ 🙏